Tuesday, 26 March 2024

अंतहीन यात्रा

 *अंतहीन यात्रा!*


यात्रा कब शुरू हुई,

पता ही नहीं चला !

बस चलता गया...चलता गया... चलता गया ...

चलता गया!


जब थकान महसूस हई  तो लगा कुछ देर आराम करूं,

थकान दूर करूं।


बैठे-बैठे यूं ही विचार आया कि,

कौन चल रहा है?

कहां चल रहा है? 

किस लिए चल रहा है? 

क्यों चल रहा है?


कहां मंजिल है? 

कहां ठिकाना है? 

क्यों चलना है?

और चलना जरूरी  भी है कि नहीं?  

तो फिर क्यों चल रहा है?


बस इन्हीं प्रश्नों में उलझते गया।

उलझते उलझते महसूस हुआ कि तू तो बहुत बड़ी हस्ती है! 


कहां चक्कर में पड़ा है, इस अंतहीन दौड़ में!


अब हस्ती का क्या अनुमान?

कितनी बड़ी हस्ती है? 

 

किन-किन से बड़ी है? किन-किन से छोटी है? 


जिनसे छोटी है वहां से हम कितने बड़े हैं?


जिनकी हस्ती हम से बड़ी है, 

वहां तक पहुंचने के लिए  हमें कितना चलना पड़ेगा?


चलो मान लो वह हस्ती, जो हमसे  बड़ी है

वह एक हो तो 

हम एक अनुमान लगा सकते हैं,

कि यहां तक चलना पड़ेगा!


लेकिन जैसे ही एक को लक्षित किया, 

दूसरी सामने आ गई ।


मैं तो समझा था कि मुकाम  हासिल कर लिया!


जैसे तैसे दूसरी की बराबरी पर पहुंचा 

कि तीसरी हस्ती उससे बड़ी खड़ी हो गई!


बोली बच्चू हमसे बच के कहां जाओगे ...और यूं करते-करते ....

करते करते....

करते  करते न जाने कितने जन्म जन्मांतर बीत गए!

आज तक उसी दौड़ में  शामिल हूं! 


यह दौड़ कब खत्म होगी मुझे नहीं मालूम। 

इतना मुझे मालूम है कि मुझसे बड़ा कोई न कोई है! 


मैं अपने से बड़े  की बराबरी क्यों करना चाहता हूं ?...

यह आज तक समझ से बाहर है!


और इसी बड़ों की बराबरी के भ्रम में ...

जो मुझसे छोटे हैं 

उनसे अपने को बड़ा भाग्यशाली न  मानने की भूल में, 

अपने अस्तित्व को नकार कर स्वयं को भूलता गया हूं मैं।


मेरी समस्त ऊर्जा 

मेरे समस्त तंत्र 

मेरे सारे कर्म

केवल और केवल...

अपने से बड़े की बराबरी की दौड़ में शामिल रहे!


और आश्चर्य यह है कि 

मैं आज भी कर्मशील हूं

अपने से बड़े की बराबरी में!

यह जानते हुए भी कि कमतर हूं आज भी किसी न किसी अन्य से,

और उससे बराबरी या आगे बढ़ने की दौड़ में शामिल हूं!


प्रश्न यह है कि,

यह दौड़ कब आराम लेगी,

अपने आराम के लिए...

अपने लिए ...

अपने राम के लिए... 

और खत्म होगी, सदा के लिए!

जहां केवल राम हो ...

राम ही राम हो!

अन्तिम सत्य राम हो!


            ---०---


Monday, 24 June 2013

हिमालय की सुनामी में जीवन की आस
  

- भुवन चन्द्र तिवारी 

बरसात की शुरुआत में ही उत्तराखंड में आई हिमालयन सुनामी की भीषण त्रासदी में न जाने कितनी जाने चली गई... कितने मवेशी मरे.... कितने भवन नष्ट हुए ... कितनी सड़कें बह गयीं .. कितने गाँव बह गए ...और न जाने क्या क्या ख़त्म हो गया, यह सब इस दौर के होशो हवास में रहने वालों की स्मृति में कैद हो चुका है और जो कभी न भूलने वाली टीस के रूप में हमें सालों साल तक सालता रहेगा.  आंसुओं के सैलाब में न जाने कितने रिश्ते बह गए ...माँ ...पिता.. भाई .. बहन.. बेटा... बेटी... पति  ..पत्नी  ...यार .. दोस्त... और तो और रोजी रोटी के सहारे बेजुबान घोड़े , खच्चर... सब कुछ तो मन्दाकिनी और अलकनंदा के उफान की भेंट चढ़ गए... और हम सिवाय इन्हें अपनी आँखों के सामने उजड़ते देखने के, कुछ भी न कर सके. संचार के आधुनिक माध्यमों  के सहारे  यह त्रासदी आज प्रत्येक संवेदनशील इंसान महसूस कर रहा है.
पर उनका क्या जो इस घनघोर आपदा के पलों में भी अपनी दिवाली की जुगत बिठाने को तत्पर हो गए. अनाथ नगरी के नाथ का खजाना लूटने के बाद मुर्दा शरीर से भी कीमती सामान झपटने की शैतानी चाहत ने उन्हें जान बचाने की जुगत में फिसलते पहाड़ों पर गिरते पड़ते, मारे मारे फिर रहे बेबस तीर्थ यात्रियों को भी लूटने मारने  की खुली छूट दे दी. इस पवित्र देवभूमि में जहाँ चील कव्वों तक ने भी अपने स्वाभाविक भोजन को तलाशना तक गैर मुनासिब समझा, वहीँ मनुष्य के चोले में इन शैतानों की कारस्तानी से इंसानियत का सर शर्म से झुक जाता है. यात्रियों की आवा जाही से जिन व्यवसाइयों की रोजी रोटी निकलती हो वे ही अगर आपदा में फंसे और भूख प्यास से तड़पते, जीने को मजबूर यात्रियों को मनमानी कीमतों से लूटने लगें तो यह सामान्य व्यापार का नियम है कि इनकी दुकान एक न एक दिन एक सामान्य ग्राहक को भी तरसेगी. चाहे इनके आवरण कुछ भी रहे हों, अपनी आँखों के सामने ही  जिन्दा भक्तों के समूहों को लाशों में तब्दील होते देखने पर भी अपने अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने वाले इन शैतान अंधों की आँखों में मानवता की ज्योति कब आएगी यह सोच कर मन भर जाता है.
इस प्राकृतिक आपदा में ज्यादातर ऐसा रहा है जिसमें मानवीय मूल्य इन मुट्ठी भर शैतानी प्रवृत्तियों पर भारी पड़ते  दिखाई दिए. जिन पर पूरे देश को नाज है, उन सैनिक एवं अर्धसैनिक बलों के जवानो ने अपनी जान जोखिम में डाल कर हजारों लोगों की जान बचा कर उन्हें न केवल सुरक्षित क्षेत्रों पर पहुँचाया है अपितु उनके खाने पीने एवं इलाज की व्यवस्था भी की है. घर लौट रहे यात्री इन्हें सलाम करते नहीं थक रहे हैं.  सीमित संसाधनों के बावजूद स्वभाव से सरल ग्रामीणों से जो बन पाया वह उन्होंने संकट ग्रस्त तीर्थ यात्रियों के लिए किया. किन्तु विपदा की मार  अकेले इन तीर्थ यात्रियों पर ही नहीं पड़ी थी, ये बेबस ग्रामीण तो आये दिन इन प्राकृतिक विपदाओं को झेलने को मजबूर हैं. क्या इनके दर्द को आज तक किसी ने महसूस किया है? बरसात में ढहते घर, बहते मवेशी, नाम मात्र को मुट्ठी भर सदैव स्खलित होती जमीन और फटते हुए बादल इन्हें कब नेस्तनाबूद कर दे, इन्हें खुद भी नहीं पता. फिर भी इस देव भूमि के इन सरल निवासियों की आस आज भी उस दिन की बाट जोह रही जब अथक संघर्ष से प्राप्त  इनके सपनो के राज्य में यहाँ की जरूरतों के हिसाब से योजनाये बनेंगी और अमलीजामा भी पहनेंगी. विकास के नाम पर गैर जरुरी पारिस्थितिक संतुलन को छिन्न भिन्न करने वाली और ऐसी त्रासदी को बार बार जन्म देने वाली सभी गति विधियाँ रोकी जाएँगी. अचानक आई इस प्राकृतिक विपदा में फंसे वह सभी यात्री जो जीवन बचाने की आस में फिसलती और खिसकती पहाड़ी ज़मीन पर बार बार  गिरते पड़ते, जंगलों में खुले आकाश के नीचे ठण्ड से ठिठुरते , भूख और प्यास की स्वाभाविक इच्छाओं को दबा कर आज जब अपने अपने घरों को लौट रहे हैं तो  वह भी रह रह कर सोचते होंगे की हम तो वहां से निकल आये पर उनका क्या होगा जिनका सब कुछ यह पहाड़ ही है.         


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Wednesday, 27 June 2012


मन के हारे हार है, मन के जीते जीत



अनुकूल समय में सरल सा लगने वाला जीवन प्रतिकूल समय में  बड़ा ही विकट एवं दुरूह लगने लगता है . सारी परिस्थितियाँ, शक्ति ,उर्जा और हमारा विचार प्रवाह प्रतिकूलता में कब बहने लगता है ,  हमें पता ही नहीं चल पाता.  और जब इसका आभास होता है तब तक हम अपने आप को चारों ओर से कठिनाइयों से घिरा पाते हैं. इनसे बाहर निकलने की तड़प, छटपटाहट और हमारी जुझारू प्रवृत्ति ही हमें जीवन की मुख्य धारा में बनाये रखती है .ऐसी स्थिति में हमारी मनोवृत्ति उच्च आत्म-बल के सहारे हमें बेहतर जीवन जीना सिखाती है.

एक आश्रम में निर्भय विचरने वाले एक निश्चिन्त खरगोश को एक दिन एक कुत्ते ने देख लिया, बस क्या था कुत्ता उसी पल उस खरगोश के पीछे भौंकता हुआ दौड़ पड़ा . अचानक हुए इस हमले से बचने के लिए खरगोश ने जी जान से दौड़ लगा दी . वह बड़ी तत्परता से लम्बी-लम्बी छलांगे भरता हुआ बेतहाशा दौड़ रहा था . उसे कुछ नहीं सूझ रहा था ... करो या मरो ... उसे येन केन प्रकारेण कुत्ते से बचना था . इधर कुत्ता भी अचानक मिले इस भोजन को किसी भी सूरत में छोड़ना नहीं चाहता था. पूरी शक्ति लगा कर वह भी उसके पीछे भाग रहा था . प्रकृति के इस अनूठे खेल में दो जीवों की अपने अपने जीवन के प्रति उद्दाम कशमकश चल रही थी. एक को जीवन बचाना था तो दूसरे को जीवन निर्वाह के लिए श्रम करना पड़ रहा था. कहते हैं कि जो पूरे मनोयोग व समर्पण भाव जिस भी उद्देश्य को प्राप्त करना चाहता है , वह उसे अवश्य प्राप्त होता है.  और इसे प्राप्त कराने में परम पिता परमात्मा भी प्रकृति के माध्यम से सहायता करते हैं. कुत्ता भरपूर छलांग लगा कर खरगोश को दबोचने ही वाला था कि अचानक खरगोश को पास की झाडी में एक बड़ा बिल  दिखाई दिया  और वह उसमे बिना देर लगाये घुस गया . बेचारा कुत्ता देखता ही रह गया. यहाँ खरगोश का उच्च मनोबल जीवन बचाने की चाहत में अपने उत्कर्ष पर था, जबकि कुत्ते को यह आभास रहा होगा कि यह आहार मिल गया तो ठीक है और यदि नहीं मिला तो कहीं न कही कुछ और तो मिल ही जायेगा , यह विचार मात्र ही इस संयोग को प्राप्त हुआ.

मन के हारे हार है मन के जीते जीत , यह बात यूँ ही नहीं कही गयी है. दरअसल हमारा मन ही  सुख व दुःख की अनुभूति कराता है.  हमारे मस्तिष्क में पल प्रति पल परिवर्तित होते विचारों के प्रभाव में विभिन्न स्रावी ग्रंथियो द्वारा अनेक प्रकार के जैव रसायन जैसे- हारमोंस, एन्ज़ाय्म्स व हानिकारक टोक्सिंस आदि उत्पन्न होते रहते हैं. संतुलित व् सद विचारों के प्रभाव में अच्छे जैव रसायन तथा बुरे व अवसाद पूर्ण विचारों में हानिकारक टोक्सिंस आदि  उत्पन्न होते रहते हैं. जीव में सदा व सतत चलते रहने वाली यह प्रक्रिया विचारों को साक्ष्य भाव से देखने के अभ्यास से काफी हद तक काबू में आने लगती हैं. गीता में भगवन श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते है कि निःसंदेह यह मन चंचल व कठिनता से वश में होने वाला है , तथापि अभ्यास व वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है.  इसीलिए वह कहते है कि जीव को अपना उद्धार स्वयं उच्च विचार व तदनुरूप कर्म के द्वारा करना चाहिए क्योंकि हमारा मन ही हमारा मित्र है और नकारात्मक विचारों के प्रभाव में यही हमारा शत्रु बन जाता है.    हमारा मन हमारा मित्र बने इसलिए इसे सदैव हारने वाले विचारों से  बचाते रहना ही हमारी सच्ची आध्यात्मिक कोशिश होनी चाहिए.

                                                                                                                                                                                  

Saturday, 21 January 2012

कोहरे का दूसरा सच


अमूमन जाडे के मौसम मे  पहाडों पर हुई बर्फबारी के बाद  देह कंपाती सर्दियों मे मैदानी इलाकों मे आसमान से कोहरे का कहर बरसता है.  इसका  सबसे ज़्यादा खतरनाक और भयावह असर हाइवे  और महानगरों की सडकों पर दुर्घटना के रूप मे नज़र आता है. सफेद कोहरे की चादर मे लिपटी इन सडकों पर रफ्तार पकडती गाडियां मौत से आंख मिचौली का  दुस्साहसी खेल खेलती हैं, और फिर कब अचानक समाचारों की सुर्खियां बन जाती हैं , इन्हे पता नही चल पाता.
इसी कहर बरपाते कोहरे का एक दूसरा ही रूप मैने इन सडकों पर देखा , जब मै स्वयं दिल्ली की सडकों पर गाडी चलाते हुए बेहद घने सफेद कोहरे की जद मे पहुंच गया . कहां सडक है और कहां फुटपाथ समझ पाना बहुत मुश्किल था. चारों ओर घने सफेद कोहरे का समन्दर था . जिधर देखो उधर बस कोहरे की ही सफेदी थी.  विजिबिलिटी न के बराबर थी . आंखें चार-पांच फुट से ज़्यादा आगे कुछ भी नही देख पा रही थी. भरे उजाले मे खुली और स्वस्थ आंखों के रहते हुए  भी  आदमी कैसे अन्धों जैसा बन जाता है , यह कोहरे मे फंसे किसी गाडी के चालक से बेहतर और कोई  नही जान सकता . ऐसे मे सामने से आती गाडी की हैडलाइट या आगे चल रही गाडी की बैक लाइट और टिमटिमाते  ब्लिंकर्स की मद्धिम रोशनी चालक को आगे बढने की दिशा और राह दिखाती हैं.  जैसे किसी अन्धे को  लाठी का सहारा मिल गया हो ऐसा ही सहारा बनकर ये टिमटिमाते ब्लिंकर्स कोहरे  मे फंसे ड्राईवर के हौसले को बढाते हैं. दिल्ली की सडकों पर रेंगती हुई गाडियों के सामूहिक आत्मानुशासन का ऐसा अनूठा दृश्य सिर्फ घने कोहरे मे ही देखा जा सकता है. 

 कोहरा हमे कठिन परिस्थितियों में संयमित रहते हुए सावधानी पूर्वक आगे बढ़ना सिखाता है. यह   सामाजिक आत्मानुशासन के साथ साथ  ऋगवेद की ऋचा तमसो मा ज्योतिर्गमय अर्थात अज्ञान  रूपी अन्धकार से ज्ञान  रूपी प्रकाश की ओर बढने  का बेहतरीन प्रयोग करना सिखाता है. वास्तव में जीवन की यात्रा मे हम कई  बार कभी व्यावहारिक, कभी सांसारिक तो कभी आध्यात्मिक अज्ञान  रूपी कोहरे मे कभी न कभी फंस ही जाते हैं.  जब  हमे कोई  मार्ग नही सूझता तब  ऐसे मे सत्संगति ,  सद्ग्रंथ और सदगुरु रूपी ज्ञान के प्रकाश पुंज का सहारा लेकर यदि अपनी-अपनी यात्रा मे आगे बढते हुए मंजिल पाने का प्रयास किया जाये तो क्या हर्ज़ है.  - भुवन चन्द्र तिवारी  

Monday, 16 January 2012

चिलम , चिता और चिंतन

कुछ दिन पूर्व एक अंत्येष्टि में शामिल होने दिल्ली के निगम बोध घाट पर गया. हमेशा की तरह घाट पर चारों ओर धुआं , शव के जलने की गंध ,  जलती हुई  चिताएं,  बीच बीच  में रह रह कर  सुबकने की आवाजें  श्मशान का जीवंत  एहसास करा   रही   थी.   अपने सगे सम्बन्धियों से  सदा के लिए बिछुड़ने का दुःख वहां मौजूद हर एक की आँखों में देखा जा सकता था. तात्कालिक रूप से  प्रस्फुटित होने वाला श्मशान वैराग्य हमारी  अंतिम परिणति को भी हमें दिखा रहा था, जो कि अक्सर  शमशान से बाहर निकलते ही फुर्र हो जाता है .  वहां  के लिहाज से यह सब सामान्य सी बात थी. पर एक चिता को देख देख कर मै  कुछ कुछ आश्चर्य, रहस्य और जिज्ञासा के रोमांच में स्वयं को एक अनोखे चिंतन में डूबते उतराते हुए  महसूस कर रहा था.

उस जलती हुई चिता  के मुख की ओर एक बिलकुल  नई चिलम   रखी थी . चिलम के  ऊपर बाकायदा  जलता  हुआ अंगारा और उस पर जलती हुई तम्बाकू की गंध वातावरण को एक विचित्र 
आयाम   दे रही थी.  सभी उत्सुकता से उस चिता कि ओर देख रहे थे और अपने अपने तरीके से उसका अर्थ निकाल रहे थे. कुछ लोग तो वहीँ एक नए किस्म की वाद विवाद  प्रतियोगिता में जाने अनजाने शामिल हो गए थे.  मै अपने आपको ज्यादा देर तक नहीं रोक पाया और उस चिता को 
मुखाग्नि देने वाले के पास पहुँच गया.  औपचारिक शोक जताने के बाद मैंने उन सज्जन से चिता  के मुख की ओर जल रही चिलम का रहस्य जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि उनके पिताजी खांसी से परेशान थे. वह  उन्हें बीडी पीने से अक्सर मना करते  थे .  बीती  रात उनका अपने पिता से इसी बात  पर झगडा हो गया था और इस झगड़े में उन्होंने  अपने पिता की सभी  सिगरेट, बीडी, और चिलम  तोड़ दी .झगड़े के  बाद पूरी   रात भर उनके  परिवार  में तनाव और नींद की लुका छुपी चलती रही.   सुबह जब उन्होंने अपने पिताजी  को देखा तो वह  मौन पड़े थे. वह बोले, "हमारे पैरो तले की जमीन खिसक गई. पिताजी निष्प्राण हो चुके थे . वह अब इस दुनिया में नहीं रहे थे. पूरा परिवार स्वयं को कोसने लगा . चारों ओर कोहराम मच गया . अरे बीडी ही तो पी  रहे थे ... अपने आप पीते.  इससे उनकी खांसी ही तो बढ़ रही थी पर अब तो कुछ भी नहीं रहा . एक जीता जगाता रिश्ता ही ख़त्म हो गया.  अब हम किसे पिता कहेंगे.  अब कौन हमें डांटेगा, कौन हमें दुलारेगा , सब कुछ लुट गया", कहते कहते उनकी आँखों में आंसू छलक आये. मैं अवाक था ... थोड़ी देर कि चुप्पी के बाद मैंने सहानुभूति प्रकट करते हुए उन्हें समझाने का प्रयास किया और समझ गया की इस  जलती चिता के चिलम पीने का रहस्य क्या  था.

पर  वास्तव में यह समझाना क्या इतना आसान है? आखिर वे कौन से मनोवेग है , जो हमें समय रहते  जीवन की सच्चाइयों से रूबरू नहीं होने देते और जब सच सामने आता है , बहुत देर हो चुकी होती है    संबंधों और  संवेदनाओं  का संसार आज इतना नाजुक ,  और कच्ची डोर से बंधा  है कि   ज़रा से संवेग गलत तरीके से  प्रकट होते ही  या गलत तरीके से समझ लेते ही  रिश्तों में झंझावात आ जाता है और सब कुछ , यहाँ तक कि जीवन   समाप्त हो जाने में भी एक क्षण  नहीं लगता  है. लड़ते- झगड़ते -टूटते परिवार , बात बात पर दम तोड़ते सम्बन्ध, हमारे  बिखरते  संसार की झलक दिखलाते रहते है. पर हमारा भटका हुआ ...उलझा हुआ मन , झूठ से संपोषित अहंकार के कारण हमारी भलाई के लिए की गयी डांट व  ताड़ना को नहीं समझ पाता.  माँ बाप की छोटी छोटी बातों  से ही विचलित होते बच्चों के उद्दंड मनोभाव कहीं  न कहीं हमारे टूटते पारिवारिक परिवेश की गाथा हैं.  बालक और बूढ़े का मन  प्रायः एक  जैसा  ही  होता है , इन्हें  प्रेम से ही समझा जा सकता है. जब प्रेम उपजता है तो धीरज सीमा रहित  होकर हमारे जीवन में प्रवेश करता है. यही  अगाध धैर्य हमें जीवन की विकट परिस्थितियों में जीवन जीना सिखाता है. जब हम जीना सीखने लगते है तो इस के मूल में छिपी निश्छल  प्रेम कि अनंत उर्जस्विनी धारा ही   हमारा मनोबल ऊंचा बनाये रखने हमारी मदद कराती है.  प्रेम पूर्वक निर्वाह किये संबंधों में फिर न कोई शिकायत रहती है और न ही कोई मनोविकार रह पाता है  , फिर चाहे मौत  भी क्यों न हमसे हमारा प्रियतम  छीन ले हम उसके प्राणांत में भी धैर्य बनाते हुए सामान्य व्यवहार करते हैं. परिवार से बाहर निकल कर  शैक्षिक एवं सामाजिक विकास के केंद्र    विद्यालयों में टूटते गुरु -शिष्य सम्बन्ध हमारी शिक्षा प्रणाली की सच्ची किन्तु भयावह तस्वीर पेश कर रहे हैं.  सडकों पर बढ़ती रोड रेज की  घटनाएं,  स्वयं आगे बढ़ने की जुगत में दूसरों को धक्का देकर गिराने की जुगत हमें कहाँ ले जायेगी , यह अगर अब भी समझ  नहीं आया तो कब आयेगा यह चिंतन का विषय है. क्या हमारे मानवीय विकास कि धुरी शैक्षिक पाठ्यक्रम में पारिवारिक, सामजिक और  मानवीय संबंधों को समझने की  प्रायोगिक शिक्षा प्रारंभ  करने का कोई सार्थक प्रयास शुरू हो पायेगा ?