*अंतहीन यात्रा!*
यात्रा कब शुरू हुई,
पता ही नहीं चला !
बस चलता गया...चलता गया... चलता गया ...
चलता गया!
जब थकान महसूस हई तो लगा कुछ देर आराम करूं,
थकान दूर करूं।
बैठे-बैठे यूं ही विचार आया कि,
कौन चल रहा है?
कहां चल रहा है?
किस लिए चल रहा है?
क्यों चल रहा है?
कहां मंजिल है?
कहां ठिकाना है?
क्यों चलना है?
और चलना जरूरी भी है कि नहीं?
तो फिर क्यों चल रहा है?
बस इन्हीं प्रश्नों में उलझते गया।
उलझते उलझते महसूस हुआ कि तू तो बहुत बड़ी हस्ती है!
कहां चक्कर में पड़ा है, इस अंतहीन दौड़ में!
अब हस्ती का क्या अनुमान?
कितनी बड़ी हस्ती है?
किन-किन से बड़ी है? किन-किन से छोटी है?
जिनसे छोटी है वहां से हम कितने बड़े हैं?
जिनकी हस्ती हम से बड़ी है,
वहां तक पहुंचने के लिए हमें कितना चलना पड़ेगा?
चलो मान लो वह हस्ती, जो हमसे बड़ी है
वह एक हो तो
हम एक अनुमान लगा सकते हैं,
कि यहां तक चलना पड़ेगा!
लेकिन जैसे ही एक को लक्षित किया,
दूसरी सामने आ गई ।
मैं तो समझा था कि मुकाम हासिल कर लिया!
जैसे तैसे दूसरी की बराबरी पर पहुंचा
कि तीसरी हस्ती उससे बड़ी खड़ी हो गई!
बोली बच्चू हमसे बच के कहां जाओगे ...और यूं करते-करते ....
करते करते....
करते करते न जाने कितने जन्म जन्मांतर बीत गए!
आज तक उसी दौड़ में शामिल हूं!
यह दौड़ कब खत्म होगी मुझे नहीं मालूम।
इतना मुझे मालूम है कि मुझसे बड़ा कोई न कोई है!
मैं अपने से बड़े की बराबरी क्यों करना चाहता हूं ?...
यह आज तक समझ से बाहर है!
और इसी बड़ों की बराबरी के भ्रम में ...
जो मुझसे छोटे हैं
उनसे अपने को बड़ा भाग्यशाली न मानने की भूल में,
अपने अस्तित्व को नकार कर स्वयं को भूलता गया हूं मैं।
मेरी समस्त ऊर्जा
मेरे समस्त तंत्र
मेरे सारे कर्म
केवल और केवल...
अपने से बड़े की बराबरी की दौड़ में शामिल रहे!
और आश्चर्य यह है कि
मैं आज भी कर्मशील हूं
अपने से बड़े की बराबरी में!
यह जानते हुए भी कि कमतर हूं आज भी किसी न किसी अन्य से,
और उससे बराबरी या आगे बढ़ने की दौड़ में शामिल हूं!
प्रश्न यह है कि,
यह दौड़ कब आराम लेगी,
अपने आराम के लिए...
अपने लिए ...
अपने राम के लिए...
और खत्म होगी, सदा के लिए!
जहां केवल राम हो ...
राम ही राम हो!
अन्तिम सत्य राम हो!
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