हिमालय की सुनामी में जीवन
की आस
- भुवन चन्द्र तिवारी
बरसात की शुरुआत में
ही उत्तराखंड में आई हिमालयन सुनामी की भीषण त्रासदी में न जाने कितनी जाने चली गई...
कितने मवेशी मरे.... कितने भवन नष्ट हुए ... कितनी सड़कें बह गयीं .. कितने गाँव बह
गए ...और न जाने क्या क्या ख़त्म हो गया, यह सब इस दौर के होशो हवास में रहने वालों
की स्मृति में कैद हो चुका है और जो कभी न भूलने वाली टीस के रूप में हमें सालों
साल तक सालता रहेगा. आंसुओं के सैलाब में
न जाने कितने रिश्ते बह गए ...माँ ...पिता.. भाई .. बहन.. बेटा... बेटी... पति ..पत्नी
...यार .. दोस्त... और तो और रोजी रोटी के सहारे बेजुबान घोड़े , खच्चर...
सब कुछ तो मन्दाकिनी और अलकनंदा के उफान की भेंट चढ़ गए... और हम सिवाय इन्हें अपनी
आँखों के सामने उजड़ते देखने के, कुछ भी न कर सके. संचार के आधुनिक माध्यमों के सहारे यह त्रासदी आज प्रत्येक संवेदनशील इंसान महसूस
कर रहा है.
पर उनका क्या जो इस
घनघोर आपदा के पलों में भी अपनी दिवाली की जुगत बिठाने को तत्पर हो गए. अनाथ नगरी
के नाथ का खजाना लूटने के बाद मुर्दा शरीर से भी कीमती सामान झपटने की शैतानी चाहत
ने उन्हें जान बचाने की जुगत में फिसलते पहाड़ों पर गिरते पड़ते, मारे मारे फिर रहे
बेबस तीर्थ यात्रियों को भी लूटने मारने की
खुली छूट दे दी. इस पवित्र देवभूमि में जहाँ चील कव्वों तक ने भी अपने स्वाभाविक
भोजन को तलाशना तक गैर मुनासिब समझा, वहीँ मनुष्य के चोले में इन शैतानों की
कारस्तानी से इंसानियत का सर शर्म से झुक जाता है. यात्रियों की आवा जाही से जिन
व्यवसाइयों की रोजी रोटी निकलती हो वे ही अगर आपदा में फंसे और भूख प्यास से तड़पते,
जीने को मजबूर यात्रियों को मनमानी कीमतों से लूटने लगें तो यह सामान्य व्यापार का
नियम है कि इनकी दुकान एक न एक दिन एक सामान्य ग्राहक को भी तरसेगी. चाहे इनके
आवरण कुछ भी रहे हों, अपनी आँखों के सामने ही जिन्दा भक्तों के समूहों को लाशों में तब्दील
होते देखने पर भी अपने अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने वाले इन शैतान अंधों की आँखों
में मानवता की ज्योति कब आएगी यह सोच कर मन भर जाता है.
इस प्राकृतिक आपदा
में ज्यादातर ऐसा रहा है जिसमें मानवीय मूल्य इन मुट्ठी भर शैतानी प्रवृत्तियों पर
भारी पड़ते दिखाई दिए. जिन पर पूरे देश को
नाज है, उन सैनिक एवं अर्धसैनिक बलों के जवानो ने अपनी जान जोखिम में डाल कर
हजारों लोगों की जान बचा कर उन्हें न केवल सुरक्षित क्षेत्रों पर पहुँचाया है
अपितु उनके खाने पीने एवं इलाज की व्यवस्था भी की है. घर लौट रहे यात्री इन्हें
सलाम करते नहीं थक रहे हैं. सीमित
संसाधनों के बावजूद स्वभाव से सरल ग्रामीणों से जो बन पाया वह उन्होंने संकट ग्रस्त
तीर्थ यात्रियों के लिए किया. किन्तु विपदा की मार अकेले इन तीर्थ यात्रियों पर ही नहीं पड़ी थी, ये
बेबस ग्रामीण तो आये दिन इन प्राकृतिक विपदाओं को झेलने को मजबूर हैं. क्या इनके
दर्द को आज तक किसी ने महसूस किया है? बरसात में ढहते घर, बहते मवेशी, नाम मात्र
को मुट्ठी भर सदैव स्खलित होती जमीन और फटते हुए बादल इन्हें कब नेस्तनाबूद कर दे,
इन्हें खुद भी नहीं पता. फिर भी इस देव भूमि के इन सरल निवासियों की आस आज भी उस
दिन की बाट जोह रही जब अथक संघर्ष से प्राप्त इनके सपनो के राज्य में यहाँ की जरूरतों के
हिसाब से योजनाये बनेंगी और अमलीजामा भी पहनेंगी. विकास के नाम पर गैर जरुरी
पारिस्थितिक संतुलन को छिन्न भिन्न करने वाली और ऐसी त्रासदी को बार बार जन्म देने
वाली सभी गति विधियाँ रोकी जाएँगी. अचानक आई इस प्राकृतिक विपदा में फंसे वह सभी
यात्री जो जीवन बचाने की आस में फिसलती और खिसकती पहाड़ी ज़मीन पर बार बार गिरते पड़ते, जंगलों में खुले आकाश के नीचे ठण्ड
से ठिठुरते , भूख और प्यास की स्वाभाविक इच्छाओं को दबा कर आज जब अपने अपने घरों
को लौट रहे हैं तो वह भी रह रह कर सोचते
होंगे की हम तो वहां से निकल आये पर उनका क्या होगा जिनका सब कुछ यह पहाड़ ही है.
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