Wednesday 27 June 2012


मन के हारे हार है, मन के जीते जीत



अनुकूल समय में सरल सा लगने वाला जीवन प्रतिकूल समय में  बड़ा ही विकट एवं दुरूह लगने लगता है . सारी परिस्थितियाँ, शक्ति ,उर्जा और हमारा विचार प्रवाह प्रतिकूलता में कब बहने लगता है ,  हमें पता ही नहीं चल पाता.  और जब इसका आभास होता है तब तक हम अपने आप को चारों ओर से कठिनाइयों से घिरा पाते हैं. इनसे बाहर निकलने की तड़प, छटपटाहट और हमारी जुझारू प्रवृत्ति ही हमें जीवन की मुख्य धारा में बनाये रखती है .ऐसी स्थिति में हमारी मनोवृत्ति उच्च आत्म-बल के सहारे हमें बेहतर जीवन जीना सिखाती है.

एक आश्रम में निर्भय विचरने वाले एक निश्चिन्त खरगोश को एक दिन एक कुत्ते ने देख लिया, बस क्या था कुत्ता उसी पल उस खरगोश के पीछे भौंकता हुआ दौड़ पड़ा . अचानक हुए इस हमले से बचने के लिए खरगोश ने जी जान से दौड़ लगा दी . वह बड़ी तत्परता से लम्बी-लम्बी छलांगे भरता हुआ बेतहाशा दौड़ रहा था . उसे कुछ नहीं सूझ रहा था ... करो या मरो ... उसे येन केन प्रकारेण कुत्ते से बचना था . इधर कुत्ता भी अचानक मिले इस भोजन को किसी भी सूरत में छोड़ना नहीं चाहता था. पूरी शक्ति लगा कर वह भी उसके पीछे भाग रहा था . प्रकृति के इस अनूठे खेल में दो जीवों की अपने अपने जीवन के प्रति उद्दाम कशमकश चल रही थी. एक को जीवन बचाना था तो दूसरे को जीवन निर्वाह के लिए श्रम करना पड़ रहा था. कहते हैं कि जो पूरे मनोयोग व समर्पण भाव जिस भी उद्देश्य को प्राप्त करना चाहता है , वह उसे अवश्य प्राप्त होता है.  और इसे प्राप्त कराने में परम पिता परमात्मा भी प्रकृति के माध्यम से सहायता करते हैं. कुत्ता भरपूर छलांग लगा कर खरगोश को दबोचने ही वाला था कि अचानक खरगोश को पास की झाडी में एक बड़ा बिल  दिखाई दिया  और वह उसमे बिना देर लगाये घुस गया . बेचारा कुत्ता देखता ही रह गया. यहाँ खरगोश का उच्च मनोबल जीवन बचाने की चाहत में अपने उत्कर्ष पर था, जबकि कुत्ते को यह आभास रहा होगा कि यह आहार मिल गया तो ठीक है और यदि नहीं मिला तो कहीं न कही कुछ और तो मिल ही जायेगा , यह विचार मात्र ही इस संयोग को प्राप्त हुआ.

मन के हारे हार है मन के जीते जीत , यह बात यूँ ही नहीं कही गयी है. दरअसल हमारा मन ही  सुख व दुःख की अनुभूति कराता है.  हमारे मस्तिष्क में पल प्रति पल परिवर्तित होते विचारों के प्रभाव में विभिन्न स्रावी ग्रंथियो द्वारा अनेक प्रकार के जैव रसायन जैसे- हारमोंस, एन्ज़ाय्म्स व हानिकारक टोक्सिंस आदि उत्पन्न होते रहते हैं. संतुलित व् सद विचारों के प्रभाव में अच्छे जैव रसायन तथा बुरे व अवसाद पूर्ण विचारों में हानिकारक टोक्सिंस आदि  उत्पन्न होते रहते हैं. जीव में सदा व सतत चलते रहने वाली यह प्रक्रिया विचारों को साक्ष्य भाव से देखने के अभ्यास से काफी हद तक काबू में आने लगती हैं. गीता में भगवन श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते है कि निःसंदेह यह मन चंचल व कठिनता से वश में होने वाला है , तथापि अभ्यास व वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है.  इसीलिए वह कहते है कि जीव को अपना उद्धार स्वयं उच्च विचार व तदनुरूप कर्म के द्वारा करना चाहिए क्योंकि हमारा मन ही हमारा मित्र है और नकारात्मक विचारों के प्रभाव में यही हमारा शत्रु बन जाता है.    हमारा मन हमारा मित्र बने इसलिए इसे सदैव हारने वाले विचारों से  बचाते रहना ही हमारी सच्ची आध्यात्मिक कोशिश होनी चाहिए.

                                                                                                                                                                                  

1 comment:

  1. uttam vichaaron ki pravaah se sabko ko anubhuti honi chayiye..

    pranam.

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